The Broken Star Diaries
टूटे दिल की कहानी, हीलिंग के अफसाने।
47 से 61: सलोनी तिवारी के अनकहे पन्ने
लखनऊ – पन्ना नं. 47 से 61 तक
मंगलवार, 14 जनवरी
सुबह 7 बजे की ठंड में जब पापा साइकिल से स्कूल जाते हैं, मैं खिड़की से उन्हें देखती हूँ।
पुराना नीला स्वेटर, कई जगह से सिल चुका, घिसा हुआ बैग… फिर भी चेहरे पर संतोष।
कभी सोचा था, पापा के लिए कुछ कर पाऊँगी, लेकिन आजकल तो खुद के लिए भी नहीं कर पा रही।
पापा सुबह जल्दी उठते हैं, स्कूल के बच्चों को पढ़ाने की तैयारी करते हैं। उनकी साइकिल की चरमराहट मेरे लिए सुबह की पहली आवाज़ है।
बचपन में पापा मुझे उसी साइकिल पर बिठाकर स्कूल छोड़ते थे। अब मैं बड़ी हो गई हूँ, लेकिन साइकिल वही है, बस उसकी रंगत अब थोड़ी फीकी पड़ गई है।
कॉलेज के गेट पर खड़ी थी, लेकिन पैर जैसे अंदर जाने से डर रहे थे।
भीड़ में भी मैं अकेली महसूस करती हूँ।
लोग पूछते हैं — "तुम ठीक हो न?"
मैं बस मुस्कुरा देती हूँ… क्योंकि बताने लगूँ तो शायद रो पड़ूँ।
आजकल क्लास में बैठकर भी मन कहीं और भटकता है।
प्रोफेसर की आवाज़ सुनाई देती है, लेकिन शब्द दिमाग तक नहीं पहुँचते।
दोस्तों से दूरी बना ली है, शायद इसलिए कि उनकी हँसी मुझे मेरे अपने खालीपन की याद दिलाती है।
गुरुवार, 30 जनवरी
आरव…
दो साल पहले आया था मेरी ज़िंदगी में, जैसे किसी सूखे पेड़ पर पहली बारिश।
कॉलेज के फेस्ट में मिला — सबसे अलग, सबसे हंसमुख।
उसकी बातों में एक अजीब सा जादू था। वो बोलता तो लगता, जैसे दुनिया की सारी परेशानियाँ गायब हो गई हों।
धीरे-धीरे, चाय की चुस्कियों और लाइब्रेरी के कोनों में हमारी कहानी बनने लगी।
वो छोटी-छोटी बातें, जैसे मेरे लिए चाय लाना, मेरे नोट्स सँभालना, या मेरे बिखरे बालों का मज़ाक उड़ाना… सब कुछ खास लगता था।
उसने मुझे महसूस कराया कि मैं भी खास हूँ।
मैंने उसे सब बता दिया — बचपन की तंगी, माँ की तकलीफ़ें, पापा का संघर्ष, भाई के सपने।
मुझे लगा, वो समझेगा… हमेशा रहेगा।
लेकिन एक दिन, बस एक मैसेज —
"सलोनी, तुम बहुत अच्छी हो… बस मेरे लिए नहीं।"
उस एक लाइन ने जैसे मेरे सारे सपनों को चकनाचूर कर दिया।
उस दिन मैंने सिर्फ़ उसे नहीं खोया… मैंने खुद को भी खो दिया।
रातभर रोई, लेकिन सुबह तक आँसुओं ने भी साथ छोड़ दिया। अब बस एक खालीपन है, जो हर पल मेरे साथ चलता है।
सोमवार, 10 फरवरी
अब मैं बस औपचारिक रूप से जी रही हूँ।
क्लास में जाती हूँ, लेकिन दिमाग खाली रहता है।
डायरी लिखना बंद कर दिया है।
दोस्त कहते हैं, “चल, मूवी चलते हैं” — लेकिन मेरे अंदर का शोर इतना तेज़ है कि बाहर की हँसी सुनाई ही नहीं देती।
मैंने बहाने बनाने शुरू कर दिए — कभी सिरदर्द, कभी असाइनमेंट।
असल में, मैं बस अकेले रहना चाहती हूँ।
रात को माँ आईं।
सोच रही थीं, मैं सो रही हूँ।
धीरे से मेरा माथा सहलाया और चली गईं।
माँ की वो छुअन… जैसे मेरे सारे दर्द को कुछ पल के लिए चुप कर गई।
काश, वो जान पातीं कि उनकी बेटी अंदर से कितनी बिखर चुकी है।
मंगलवार, 18 फरवरी
आज बस में बैठी थी।
खिड़की से बाहर देखा — एक छोटा लड़का, अपने पापा के साथ, सड़क किनारे जूते पॉलिश कर रहा था।
पापा ने उससे कहा —
"पढ़-लिख ले बेटा, ताकि तेरे हाथ में ब्रश नहीं, कलम हो।"
ये सुनते ही जैसे मेरी साँस रुक गई।
मेरे पापा ने भी तो यही सपना देखा है…
माँ ने भी तो हर त्यौहार पर अपने लिए कुछ नहीं खरीदा, सिर्फ़ मेरे और भाई के लिए।
रात को मैंने पुरानी तस्वीरें देखीं।
एक तस्वीर में मैं और भाई, माँ के साथ मेले में हैं।
माँ ने हमें गुब्बारे दिलाए थे, लेकिन खुद के लिए कुछ नहीं लिया था।
उस रात मैंने सोचा — मैंने अपने लिए क्या किया?
एक टूटे रिश्ते के पीछे अपनी ज़िंदगी रोककर बैठ गई थी।
शुक्रवार, 21 फरवरी
आज पहली बार लगा कि मुझे बदलना होगा।
ना सिर्फ़ अपने लिए, बल्कि उन लोगों के लिए जो मुझ पर भरोसा करते हैं।
मैंने तय किया — अब मैं किसी के जाने से नहीं टूटूँगी।
मैं अपनी कहानी खुद लिखूँगी।
सुबह उठकर अपने कमरे को साफ किया।
पुराने लेटर्स, आरव की दी हुई चीज़ें — सब एक डिब्बे में बंद करके अलमारी के सबसे पीछे रख दिया।
अब वक्त है आगे बढ़ने का।
सोमवार, 24 फरवरी
सुबह नोट्स निकाले।
लाइब्रेरी में बैठकर घंटों पढ़ाई की।
ऐसा लगा जैसे महीनों बाद दिमाग को ताज़ी हवा मिली हो।
शाम को पार्ट-टाइम ट्यूशन का इंटरव्यू दिया।
सिर्फ़ 1500 रुपये महीने मिलेंगे, लेकिन पापा से एक रुपये भी नहीं लूँगी।
जब माँ को बताया, उनकी आँखों में चमक आ गई।
वो बोलीं — “बेटी, तूने आज मुझे गर्व महसूस कराया।”
गुरुवार, 5 मार्च
अब दिन लंबे लगते हैं, लेकिन अंदर एक छोटी सी आग जल रही है।
आरव को भूलना आसान नहीं है।
उसकी यादें अब भी चुभती हैं, लेकिन अब वो मुझे तोड़ने के बजाय आगे बढ़ा रही हैं।
सुबह 6 बजे उठना, कॉलेज, लाइब्रेरी, और शाम को ट्यूशन…
थकान होती है, लेकिन ये थकान अच्छी लगती है — जैसे मैं हर दिन कुछ नया बना रही हूँ।
सोमवार, 6 जुलाई
आज कॉलेज का रिज़ल्ट आया।
मैं टॉपर हूँ।
स्कॉलरशिप के लिए चुनी गई हूँ — दिल्ली के एक बड़े इंस्टिट्यूट से लेटर आया है।
जब पापा को बताया, उनकी आँखों में गर्व का पानी भर आया।
वो बोले — “सलोनी, तूने हमारा सपना सच कर दिया।”
माँ ने गले लगा लिया।
भाई उछलकर बोला — "दीदी, आप तो हमारी हीरो हो!"
उस पल मुझे लगा, ये जीत सिर्फ़ मेरी नहीं, मेरे पूरे परिवार की है।
आरव शायद कभी नहीं जानेगा…
लेकिन उसका जाना ही मेरी सबसे बड़ी जीत की वजह बना।
रविवार, 20 दिसंबर
अब मैं लखनऊ छोड़ने वाली हूँ, नई ज़िंदगी शुरू करने के लिए।
दिल्ली — नया इंस्टिट्यूट, नई चुनौतियाँ, नया माहौल।
आज अपनी डायरी फिर से पढ़ी।
हर पन्ना मेरे दर्द, मेरी हार, और मेरी जीत की गवाही दे रहा है।
अगर कभी आरव सामने आया, तो मैं मुस्कुराकर सिर्फ़ इतना कहूँगी —
"धन्यवाद, क्योंकि तुम्हारे जाने से ही मैं खुद को पा सकी।"
कभी-कभी, ज़िंदगी हमें तोड़ती है… ताकि हम खुद को नए तरीके से जोड़ सकें।
मैं सलोनी तिवारी हूँ… और मैं हारने के लिए नहीं पैदा हुई।
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